Thursday, August 11, 2016

इरोम चानू शर्मिला... एक नाम ही काफी है संघर्ष की कहानी को बयां करने के लिए

इरोम चानू शर्मिला... एक नाम ही काफी है संघर्ष की कहानी को बयां करने के लिए
इरोम शर्मिला...एक नाम...एक जान...एक मणिपुर...एक अफस्पा...एक जिंदगी, लेकिन कई जिंदगियों के लिए जारी संघर्ष की एक कहानी, जिसके कई आयाम है। कहानी बहुत लंबी है। 21वीं सदी का पहला वर्ष समाप्त होने वाला था, तभी देश के पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर से कई साल तक चलने वाली एक जंग की शुरूआत हो रही थी। एक 28 साल की युवा लड़की भारत सरकार के कानून अफस्पा और सेना द्वारा मणिपुर के लोगों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ एक ऐसी कहानी लिखने को तैयार थी,. जो इतना लम्बी चलेगी यह कोई सोच भी नहीं सकता था। साल था सन् 2000, महीना था सर्द दिसंबर का, तारीख थी 4। यह बस तारीख नहीं थी, एक तारीख को तवारीख में बदलने की शुरूआत थी।
इरोम शर्मिला की जंग शुरू हो चुकी थी। उसे नहीं मालूम था की वह जो करने जा रही है उसका परिणाम क्या होगा? और उसके लिए यह जानना जरूरी भी नहीं था। वह तो बस अपने मणिपुर के लिए कुछ कर गुजरना चाहती थी। कुछ ऐसा जो आज तक न हुआ हो, कुछ ऐसा जिसे लंबे समय तक याद किया जाए, कुछ ऐसा जो फिर कभी न हो, कुछ ऐसा जिससे उसका मणिपुर बच जाए। वह मणिपुर जो भारत के नक्शे पर तो है, लेकिन भारत के लोग नक्शे में भी उसकी फ्रिक नहीं करते।
इरोम ने यूं ही भूख हड़ताल की शुरूआत नहीं की थी। इसके पीछे एक बहुत बड़ा कारण था। चलिए हम आपको सबसे पहले कारण बता देते हैं सोलह साल चले इस संघर्ष की। इरोम ने अपनी भूख हड़ताल तब की थी जब 2 नवम्बर के दिन मणिपुर की राजधानी इंफाल के मालोम में असम राइफल्स के जवानों के हाथों 10 बेगुनाह लोग मारे गए थे। उन्होंने 4 नवम्बर 2000 को अपना अनशन शुरू किया था, इस उम्मीद के साथ कि 1958 से अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, असम, नगालैंड, मिजोरम और त्रिपुरा में और 1990 से जम्मू-कश्मीर में लागू आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट(एएफएसपीए) को हटवाने में वह देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नक्शेकदम पर चल कर कामयाब होंगी, लेकिन सोलह साल बाद भी वह कामयाब हुई की नहीं यह आप तय करिए।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नक्शेकदम पर चल कर कामयाबी का ख्वाब देखने वाली इरोम शर्मिला की कवियित्रि मन की मासूमियत उनके जिद में दबकर रह गई। मासूम इसलिए की उन्होंने यह नहीं सोचा था की राष्ट्रपिता को तो विदेशियों ने स्वीकार कर लिया। जो काम गांधीजी ने शुरू किया था उसमें उन्हें कामयाबी हाथ लगी, लेकिन इरोम को इस देश के सत्ताधारियों ने इतने बड़े संधर्ष के बाद भी स्वीकार नहीं किया। उनकी मांगे आज भी अधूरी हैं। वह मणिपुर के लिए, पूर्वोवतर के लिए और अपने लोगों के लिए गांधी नहीं बन पाई। गांधीजी के रास्ते पर चलना उनको कामयाबी की मंजिल नहीं दिया पाया। इसलिए तो वो अब गांधी के रास्ते को त्यागकर उस सिस्टम का हिस्सा बनने की चाहत रख रही है, जिस सिस्टम ने उन्हें 16 सालों तक नजरअंदाज किया।
अनशन शुरू करने के बाद इरोम शर्मिला राज घाट से जंतर मंतर तक गई। उन्हें आत्महत्या करने के प्रयास में कई बार गिरफ्तार किया गया और रिहा किया गया। मानो एक तरह से यह सिलसिला 16 साल तक चलता रहा। इरोम को भी इसकी आदत हो गई। यही तो कारण था की वह घबराई नहीं और अपने इरादों पर डटी रही। इरोम के समर्थन में कई लोग आए। वो फोटो तो आपने देखी ही होंगी जब लगभग 30 महिलाएं असम राइफल्स के हेड क्वाटर्र के सामने निवस्त्र होकर, 'आओ हमारा रेप करो' का तख्तियां लेकर प्रदर्शन किया। ये महिलाएं भी इरोम के प्रयासों का समर्थन कर रही थी।
अपने चिरपरिचित अंदाज में भारत की कई पार्टियों ने इरोम शर्मिला को अपने में मिलाने की कोशिश की। ये कोशिश सिर्फ इस विश्वास पर थी कि उनके पार्टी में आने से एक सीट का इजाफा तो पक्का है। किसी भी पार्टी की मंशा यह नहीं थी कि इरोम जिन मांगों के लिए इतनी बड़ी कुर्बानी दे रही है उसे पूरा किया जाए। पार्टियों को सिर्फ जरूरत थी महज एक सीट की, महज एक संख्या की जिसे हम 'एक' कहते हैं। लेकिन किसी पार्टी और नेता ने नहीं सोचा कि उसी 'एक' के लिए तो इरोम ने यह अनशन शुरू किया था। इरोम के 'एक' का मतलब था पूरा का पूरा देश एक। भारत और पूर्वोत्तर नहीं। इरोम के एक का मतलब था देश के अन्य राज्यों की तरह पूर्वोत्तर और कश्मीर में भी अफस्पा न रहे। अफस्पा लागू किए गए राज्यों को भी भारत के अन्य राज्यों की तरह एक कर लिया जाए।
जब इरोम शर्मिला ने अनशन शुरू किया था तब देश में बीजेपी की नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार थी। तब सरकार के पास पूर्ण बहुमत नहीं था इसलिए हो सकता है कि उन्होंने उनकी मांगों को पूरा नहीं किया हो। अब जब उन्होंने अनशन तोड़ दिया है तब भी बीजेपी की नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार है। लेकिन विडम्बना यह है कि इन सोलह सालों में बीजेपी पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में तो कामयाब हो गई, लेकिन इरोम शर्मिला अपने मांगों को पूरा कराने में कामयाब नहीं हो पाई। ऐसा नहीं है की इरोम के अनशन के दौरान केवल बीजेपी की सरकार रही। उनके अनशन के दौरान दस सालों के लिए कांग्रेस की नेतृत्व वाली यूपीए सरकार भी रही। लेकिन दुःख की बात यह है कि दोनों में से किसी पार्टियों ने इरोम की बातों को नहीं सुना। सबने अनदेखा किया। जिन्होंने इरोम को अनदेखा किया अब वह उन्हीं के बीच जाने के लिए तैयार नजर आ रही है। उम्मीद करते हैं कि इरोम की जिद और उनके इरादे कामयाब होगें क्योंकि इरोम अब आजाद हो गई हैं।

http://www.patrika.com/feature/hot-on-web/irom-sharmila-story-of-iron-lady-irom-chanu-sharmila-1001673/

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