Monday, February 13, 2017

विश्व रेडियो दिवस, मैं और बीबीसी हिन्दी

आज विश्व रेडियो दिवस है। कल राजस्थान पत्रिका के संडे जैकेट पर इससे जुड़ी खबर थी। अखबार की हेडलाइन थी 'रेडियो ऐट 94 फिर भी नॉटआउट' मुझे लगा कि अभी भी रेडियो को भारत में आए मात्र 94 साल ही हुए। मैं ये समझता था कि ये जन्म-जन्मांतर से है। हमारे साथ, आसपास, दिल में, घरों में, सड़कों पर, गाड़ियों में, रिक्शा पर और दुकानों में।

मैं इतिहास में नहीं जाऊंगा। रेडियो से मेरा साथ बहुत कम समय का रहा। 2004-07 तक का। आज भी सुनता हूं। लेकिन वो समय था जब बिना गैप के और कोई कार्यक्रम छोड़े तीन साल तक सुना था। 2004 में रेडियो सुनना शुरू किया। रेडियो सुनना शुरू हो चुका था। गांवों में बीबीसी लंदन का बड़ा क्रेज था। जो ज्यादा बोले या जो ज्यादा बहस करे उसका नाम ही बीबीसी रख दिया जाता था। गांव में बीबीसी सुनने वाले बीबीसी को सबसे विश्वसनीय मानने थे। आज भी मानते हैं। कहते थे कि कुछ भी हो बीबीसी चार-पांच लोगों को बुलाकर उस मुद्दे को एकदम श्रोताओं के लिए क्लियर कर के बताता है।



मैं भी रेडियो सुनना सीखा, तो कोशिश थी कि बीबीसी सुने। मीडियम वेव, शॉर्ट्स वेव भी होता है रेडियो में। अब उसमें एफएम भी जुड़ गया है। पता नहीं था कहां बीबीसी पकड़ेगा। घर के बगल में भूषण चा बीबीसी लंदन सुना करते थे। उनके रेडियो में चेक किया फिर अपने रेडियो में पकड़ाया। मैं भी सुनने लगा बीबीसी लंदन। उस समय अंचला शर्मा संपादक थीं, बाद में फिर संजीव श्रीवास्तव हुए और ऐसे ही कई और नाम। हमारे लिए बीबीसी में सबसे महत्वपूर्ण थे मलय नीरव। खनकती आवाज में बुलेटिन के खत्म होने से पहले खेल समाचार सुनाते थे। गजब की आवाज। गजब का विश्लेषण। मजा आ जाता था उनको सुनकर। फिर धीरे-धीरे सबकी आवाज पहचानने लगा। ममता गुप्ता का हमसे पुछिएं हो। राजेश जोशी हो, ब्रजेश उपाध्याय हो, या ऐसे ही कई और भी।

2004 का अमरीकी चुनाव का पूरा ब्योरा आज भी याद है। बुश के खिलाफ डेमोक्रेट जॉन केरी थे। अमरीकी लोकतंत्र से लेकर चुनाव प्रक्रिया और पार्टी तक की जानकारी सब याद हो गया था बीबीसी के माध्यम से। बीबीसी की सबसे खास बात यह है कि उसने दुनिया से वास्ता करा दिया अपना। दुनिया की कोई भी घटना हो या चुनाव इन सब चीजों को बीबीसी हमलोगों तक पहुंचा दिया करता था। गाजापट्टी से लेकर कश्मीरी अलगाववाद तक। सब बीबीसी ने समझाया।

बीबीसी के माध्यम से ही पता चला कि क्रिकेट के अलावा भी कोई खेल होता है। अभी भी अच्छे से याद है 2005 में नडाल ने फ्रेंच ओपन के सेमीफाइनल में नंबर एक खिलाड़ी फेडेरर को हराया था। फेडेरर को हराना बड़ी बात थी। तभी नाम याद हुआ फेडेरर और नडाल का। फिर विम्बलडन फेडेरर जीते। मलय नीरव ने दोनों को यादगार बना दिया।

ईपीएल हो या फुटबॉल वर्ल्ड कप। हर एक आयोजन को हमने मन की आंखों से देखा था बीबीसी के माध्यम से। 2005 का बिहार चुनाव और मणिकांत ठाकुर, बीबीसी पटना। आह्। नॉस्टेलजिया टाइप मामला है ये सब। सारे संवाददाता के नाम आज भी याद हैं। रेडियो ने बहुत कुछ दिया। खासकर बीबीसी ने।

कई कार्यक्रम आते थे। सुबह में दो कार्यक्रम आते थे 6:30 बजे और 8:00 बजे। 6:30 बजे वाला सुनकर ट्यूशन और स्कूल जाने की तैयारी में लग जाता था। 8 बजे वाला कार्यक्रम बहुत कम सुनता था। केवल छुट्टी के दिन। शाम में 7:30 वाला जरूर सुना करता था। पहले 45 मिनट का आता था फिर एक घंटे का हो गया। बीबीसी के घटनाक्रम के साथ दुनिया के घटना क्रम को भी याद कर लिया था मैंने। श्रोताओं के पत्र भी आया करते थे। एक वाकया याद आ रहा है। जयपुर संवाददाता थे नारायण बारिठ। कई दिनों से उनकी आवाज नहीं सुनी गई थी। श्रोताओं ने पूछा कि नारायण बारिठ साहब कहां हैं, बहुत दिन से उनकी आवाज बीबीसी पर नहीं सुनी। इसके जवाब में ममता गुप्ता ने बताया कि उनका एक्सिडेंट हो गया है। उनको चोट लगी है इसी कारण उनकी रिपोर्ट और आवाज आप नहीं सुन पा रहे हैं। इन बातों से पता चलता है कि सुनने वालों का बीबीसी से भावनात्मक नाता रहता था। अब है कि नहीं ये नहीं जानता।

एक गलतफहमी भी थी बीबीसी को लेकर और वो ये थी कि कोई भी बड़ा आदमी बीबीसी वालों से जरूर बात करता है। बच्चन हो या अंकल सैम। लगता था कि ये सब केवल बीबीसी से ही बात करते हैं। बाद में सब समझा। खैर यह अपने आप में बताता है कि बीबीसी का क्या महत्व है। आज भी लोग कहते हैं कि फलाने ने बीबीसी से आज ये बात बताई। कोई भी स्टार हो या कोई भी नेता, वो बताते सबको हैं लेकिन हम जैसों के लिए वो सिर्फ बीबीसी को ही बताते हैं।

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